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Wednesday, October 20, 2010
Monday, October 18, 2010
कश्मीर समस्या को लेकर बनाई गई फिल्में इसलिए सफल नहीं होतीं
कश्मीर समस्या को लेकर बनाई गई फिल्में इसलिए सफल नहीं होतीं, कि उनमें पूरा सच नहीं होता। कश्मीर को लेकर कई तरह के सच हैं। श्रीनगरClick here to see more news from this city के "टूरिस्ट सेंटर" में आतंकियों ने आग लगा दी थी। वे श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा शुरू किए जाने का विरोध कर रहे थे। तब टूरिस्ट सेंटर से लाइव रिपोर्टिंग कर रही थीं बरखा दत्त। बरखा का अनुमान था कि टूरिस्ट सेंटर के आस-पास खड़ी कश्मीरी जनता आतंकवादियों की इस हरकत की विरोधी है। सो उन्होंने लाइव रिपोर्टिंग के दौरान ही एक कश्मीरी से पूछ लिया कि इस हमले को लेकर आपके क्या विचार हैं। विचार जो थे, वो भारत विरोधी थे। उस आदमी ने भारत विरोधी बातें कहीं। बरखा दत्त ने फौरन उससे माइक लिया और कहा - कश्मीर में इस तरह की सोच भी कुछ लोग रखते हैं चलिए आपको वापस स्टूडियो लिए चलते हैं। बरखा दत्त जैसी अनुभवी रिपोर्टर के भी हाथ-पैर फूल गए थे। टीवी पर फिर वो फुटेज नहीं दिखाया गया। कश्मीरी जनता से अकसर लाइव बातचीत नहीं दिखाई जाती और इसकी शिकायत भी कश्मीर के लोग करते हैं।
कश्मीर के अलग-अलग सच हैं। फिल्मकार क्या दिखाए और क्या नहीं? न सच गले उतरता है न झूठ को दिल कबूल करता है। कुछ कश्मीरी हैं, जो पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं। कुछ कश्मीरी हैं, जो चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही उनका पिंड छोड़ दें और कश्मीर एकदम छुट्टा आजाद हो जाए। कुछ कश्मीरी अपना मुस्तकबिल भारत के साथ बने रहने में देखते हैं। नाराजगियाँ हैं और खूब हैं।
अधिकांश फौजियों की निगाह से कश्मीर का हर बाशिंदा आतंकवादी या आतंकियों को पनाह देने वाला है। आम कश्मीरी की नजर में हर फौजी जुल्म करने वाला है। घाटी छोड़ चुके कश्मीरी पंडितों के लिए कश्मीर का सच अलग है और कश्मीर के गाँवों में रहने वाले उन मासूमों के लिए अलग, जिनके लिए आतंकवादी भी उतने ही डरावने हैं जितने वर्दी वाले लोग।
कश्मीर के बाहर की सियासी पार्टियों के लिए कश्मीर देशभक्ति का भावनात्मक मुद्दा है। कश्मीर के अंदर की सियासी पार्टियाँ आजादी और खुदमुख्तारी का जाप करती हैं। गिलानी जैसा नेता पाकिस्तान का पिछलग्गू है, तो शब्बीर शाह भारत और पाकिस्तान, दोनों ही से आजादी की बात करने वाला। राज्य एक ही है, पर जम्मूClick here to see more news from this city का आदमी अलग बात करता है और कश्मीर का अलग। लेह-लद्दाख वालों की तो कोई सुनता भी नहीं।
किसी फिल्मकार में इतना साहस और कौशल नहीं है, जो सारे सच समेट ले और सबको इस तरह सामने रखे कि कोई विवाद न हो। लिहाजा "मिशन कश्मीर" जैसी घटिया फिल्में बनती हैं, जो समस्या को छूती तक नहीं, बस समस्या को मिले प्रचार का लाभ उठाती हैं।
अफसोस की बात है कि "परजानिया" बनाकर नाम कमाने वाले राहुल ढोलकिया ने भी "लम्हा" इसी तरह बनाई है। समस्या को सतही ढंग से छूती हुई, देखी-अनदेखी करती हुई। कश्मीर का सच कोई एक फिल्म नहीं दिखा सकती। एक कश्मीरी पत्रकार ने ड्रामा लिखकर कश्मीर की उन महिलाओं की समस्या उठाई है, जिन्हें हाफ विडो यानी "आधी विधवा" कहा जाता है। हाफ विडो यानी वे महिलाएँ जिनके पतियों को फौज, पुलिस या सुरक्षाबल के जवान "पूछताछ" के लिए ले गए और फिर उनका कोई अता-पता नहीं है। घाटी में ऐसी हजारों विधवाएँ हैं। लापता हुए लोगों के परिजन श्रीनगर में लगातार मिलते रहते हैं और सभाएँ करते रहते हैं।
तो इस तरह कश्मीर की समस्या को एक के बाद एक देखा जा सकता है। जिस समस्या को देखने के लिए हजारों ईमानदार वृत्त चित्रों की जरूरत है, उसे आप ढाई घंटे की उस फिल्म में नहीं देख सकते जिसमें चार-पाँच गाने भी हों और अनिवार्य रूप से नायक नायिका को इश्क भी लड़ाना हो।
कुछ लिंक आपको पसंद आयेंगे:
http://oshotheone.blogspot.com/2010/10/blog-post_4428.html
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/10/blog-post_1079.htmlhttp://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/10/blog-post_1079.html
कश्मीर के अलग-अलग सच हैं। फिल्मकार क्या दिखाए और क्या नहीं? न सच गले उतरता है न झूठ को दिल कबूल करता है। कुछ कश्मीरी हैं, जो पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं। कुछ कश्मीरी हैं, जो चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही उनका पिंड छोड़ दें और कश्मीर एकदम छुट्टा आजाद हो जाए। कुछ कश्मीरी अपना मुस्तकबिल भारत के साथ बने रहने में देखते हैं। नाराजगियाँ हैं और खूब हैं।
अधिकांश फौजियों की निगाह से कश्मीर का हर बाशिंदा आतंकवादी या आतंकियों को पनाह देने वाला है। आम कश्मीरी की नजर में हर फौजी जुल्म करने वाला है। घाटी छोड़ चुके कश्मीरी पंडितों के लिए कश्मीर का सच अलग है और कश्मीर के गाँवों में रहने वाले उन मासूमों के लिए अलग, जिनके लिए आतंकवादी भी उतने ही डरावने हैं जितने वर्दी वाले लोग।
कश्मीर के बाहर की सियासी पार्टियों के लिए कश्मीर देशभक्ति का भावनात्मक मुद्दा है। कश्मीर के अंदर की सियासी पार्टियाँ आजादी और खुदमुख्तारी का जाप करती हैं। गिलानी जैसा नेता पाकिस्तान का पिछलग्गू है, तो शब्बीर शाह भारत और पाकिस्तान, दोनों ही से आजादी की बात करने वाला। राज्य एक ही है, पर जम्मूClick here to see more news from this city का आदमी अलग बात करता है और कश्मीर का अलग। लेह-लद्दाख वालों की तो कोई सुनता भी नहीं।
किसी फिल्मकार में इतना साहस और कौशल नहीं है, जो सारे सच समेट ले और सबको इस तरह सामने रखे कि कोई विवाद न हो। लिहाजा "मिशन कश्मीर" जैसी घटिया फिल्में बनती हैं, जो समस्या को छूती तक नहीं, बस समस्या को मिले प्रचार का लाभ उठाती हैं।
अफसोस की बात है कि "परजानिया" बनाकर नाम कमाने वाले राहुल ढोलकिया ने भी "लम्हा" इसी तरह बनाई है। समस्या को सतही ढंग से छूती हुई, देखी-अनदेखी करती हुई। कश्मीर का सच कोई एक फिल्म नहीं दिखा सकती। एक कश्मीरी पत्रकार ने ड्रामा लिखकर कश्मीर की उन महिलाओं की समस्या उठाई है, जिन्हें हाफ विडो यानी "आधी विधवा" कहा जाता है। हाफ विडो यानी वे महिलाएँ जिनके पतियों को फौज, पुलिस या सुरक्षाबल के जवान "पूछताछ" के लिए ले गए और फिर उनका कोई अता-पता नहीं है। घाटी में ऐसी हजारों विधवाएँ हैं। लापता हुए लोगों के परिजन श्रीनगर में लगातार मिलते रहते हैं और सभाएँ करते रहते हैं।
तो इस तरह कश्मीर की समस्या को एक के बाद एक देखा जा सकता है। जिस समस्या को देखने के लिए हजारों ईमानदार वृत्त चित्रों की जरूरत है, उसे आप ढाई घंटे की उस फिल्म में नहीं देख सकते जिसमें चार-पाँच गाने भी हों और अनिवार्य रूप से नायक नायिका को इश्क भी लड़ाना हो।
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Monday, October 4, 2010
कश्मीर समस्या एक बार फिर .............
इन दिनों कश्मीर समस्या एक बार फिर पूरे विकराल् स्वरूप के साथ हमारे समक्ष उपस्थित है। आज कश्मीर समस्या का जो स्वरूप हमें दिखाई दे रहा है उसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं जिनकी चर्चा समय समय पर होती रहती है परंतु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आज भी कश्मीर हमारे समक्ष इतिहास के अनसुलझे प्रश्न की तरह मुँह फैलाये खडा है। कश्मीर समस्या निश्चित रूप से देश की स्वतंत्रता के बाद देश के नेतृत्व की उस मानसिकता का परिचायक ही है कि देश का नेतृत्त्व क़िस प्रकार उन शक्तियों के हाथ में चला गया जो न तो भारत को एक सांस्कृतिक और न ही आध्यात्मिक ईकाई मानते थे। वे तो भारत को एक भूखण्ड तक ही मानते थे जिसका सौदा विदेशी दबाव में या अपनी सुविधा के अनुसार किया जा सकता है।
आज कश्मीर के सम्बन्ध में यह बात पूरी तरह समझने की है कि कश्मीर भारत की मूल पहचान और संस्कृति का अभिन्न अंग सह्स्त्रों वर्षों से रहा है। कश्मीर के सम्बन्ध में एक बडी भूल यही होती है कि हम इसे भारत का अभिन्न अंग मानते हुए भी इसे एक राजनीतिक ईकाई भर मान कर संतुष्ट हो जाते हैं जिसका इतिहास 194 से आरम्भ होता है। कश्मीर के प्रति भारत का भावनात्मक लगाव जब तक उसकी ऐतिहासिकता के साथ चर्चा मे नहीं लाया जाता तब तक इसका पक्ष अधूरा रहेगा। इसी पक्ष के अभाव के चलते इस समस्या को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में देखा जाता है और भारत का एक वर्ग कहीं न कहीं जाने अनजाने इस सम्बन्ध में हीन भावना से ग्रस्त होता जा रहा है कि कश्मीर में स्वायत्तता या फिर स्वतंत्रता की माँग पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार कश्मीर समस्या का एक आयाम तो उसे उसके सांस्कृतिक सातत्य में न देखने की भूल है। कश्मीर में वर्तमान समय में हम जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह पूरी तरह स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का परिणाम है। भारत को स्वाधीनता देने के बाद भी तत्कालीन विश्व राजनीति के सन्दर्भ मे ब्रिटेन और अमेरिका को दक्षिण एशिया में अपनी रणनीतिक आवश्यकता के लिये कश्मीर की आवश्यकता थी ताकि इस पूरे क्षेत्र में रूस के प्रभाव को रोका जा सके। इसी कारण इन दोनों ही देशों ने पाकिस्तान को अपना सहयोगी मान लिया और एशिया में रूस के प्रभाव को रोकने के लिये चीन को रूस के विरुद्ध प्रयोग करने में भी इन शक्तियों के निकट चीन को लाने में पाकिस्तान की भूमिका रही। इन कारणों से पश्चिमी शक्तियाँ सदैव पाकिस्तान को सहयोग देती रहीं और पाकिस्तान ने इसका लाभ उठा कर कश्मीर को एक ऐतिहासिक अधूरे प्रश्न के रूप में एक रिसते हुए घाव की तरह भारत के विरुद्ध प्रयोग किया। आज जब हम इस ऐतिहासिक घटनाओं के सन्दर्भ में कश्मीर समस्या की ओर देखते हैं तो प्रश्न उठता है कि इस समस्या को लेकर हमारा आज का दृष्टिकोण क्या होना चाहिये?
सर्वप्रथम तो हम कश्मीर समस्या को केवल राजनीतिक समस्या नहीं मान सकते। इस समस्या के सम्बन्ध में हमारी सरकारें भले ही दावा करें कि हम किसी तीसरी शक्ति की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेंगे परंतु वास्तविकता तो यह है कि हम काफी पहले से इसमें अमेरिका को परोक्ष रूप से शामिल कर चुके हैं। यदि जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर पर कबायलियों के हमले के बाद ब्रिटेन और तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन के दबाव में युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी और इस विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की भूल कर दी थी तो उसके बाद सभी काँग्रेसी सरकारों ने इस विषय को परोक्ष रूप से एक अंतरराष्ट्रीय विषय़ ही मानकर इसके साथ आचरण किया। कूट्नीतिक विफलताओं, पाकिस्तान के विरुद्ध पर्याप्त दबाव न डाल पाने और समय समय पर विदेशी दबाव में पाकिस्तान के साथ बातचीत की अपनी नीतियों के कारण पाकिस्तान ने सदैव कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विषय बनाये रखने में सफलता प्राप्त की। आज कश्मीर के विषय को हमें तीन सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है।
घरेलू सन्दर्भ- वैसे तो हम लम्बे समय से कहते आये हैं कि कश्मीर हमारा अविभाज्य अंग है परंतु एक राष्ट्र के रूप में हमने अपनी इस इच्छा शक्ति का प्रमाण कभी दिया नहीं। कश्मीर को धीरे धीरे शेष देश से अलग कर उसे विशुद्ध रूप से इस्लामी पहचान देने का प्रयास हो रहा है और इसका एक ही समाधान है कि कश्मीर की विशेष स्थिति का दर्जा समाप्त कर वहाँ से धारा 370 समाप्त की जाये ताकि उस क्षेत्र के साथ भी शेष भारत का आत्मसातीकरण हो सके। आज कश्मीर के विशेष दर्जे की बात उठाते समय तर्क दिया जाता है कि देश के पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रो को भी संविधान से विशेष दर्जा प्राप्त है परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि पूर्वोत्तर के सभी क्षेत्रों में शेष भारत के लोग न केवल व्यापार कर रहे हैं वरन पिछली अनेक पीढियों से बसे भी हैं और वहाँ किसी भी क्षेत्र में किसी नस्ल या धर्म विशेष के लोगों को जबरन विस्थापित नहीं किया गया है। इन क्षेत्रों में अनेक सेवा कार्यों और विभिन्न प्रकल्पों के द्वारा ऐसे प्रयास हुए हैं कि यहाँ अलगाव का भाव कम हुआ है । लेकिन इसके विपरीत कश्मीर में ऐसा कोई भी प्रयास नही हो सका क्योंकि इस समस्या को सदैव एक धर्म विशेष से जोडकर ही देखा गया और मतों के तुष्टीकरण की नीति के चलते कश्मीर के पूरे सन्दर्भ के साथ एक धर्म विशेष की पहचान को हटाकर इसे राष्ट्रीय विषय बनाने की प्रवृत्ति विकसित करने के स्थान पर इसकी माँग करने वालों को साम्प्रदायिक बताकर कश्मीर के विषय को और जटिल बना दिया गया।
पिछले दो दशकों के घटनाक्रम के बाद इस विषय में किसी को सन्देह रह ही नहीं जाना चाहिये कि कश्मीर में अलगाववादी चाहते क्या है? सैयद अली शाह गिलानी पिछले अनेक दशकों से घोषित करते आये हैं कि कश्मीर का विषय जिहाद से जुडा है। पिछले कुछ माह में कश्मीर का घटनाक्रम इस तथ्य को पुष्ट भी करता है कि वहाँ गिलानी ने जो कैलेंडर जारी किया है वह किसी इस्लामी राज्य के सदृश है जहाँ जुमा के दिन ( शुक्रवार) सार्वजनिक अवकाश होता है और रविवार को स्कूल और कार्यालय खुले रहते हैं। घरेलू मोर्चे पर कश्मीर के विषय को समझते समय हमें यह भूल कदापि नहीं करनी चाहिये कि यह एक वृहत्तर इस्लामी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा से भी जुडा है जिसका समाधान करने के लिये इतिहास से ही कुछ शिक्षा लेनी होगी ताकि इस मह्त्वाकाँक्षा के समक्ष समर्पण जैसी भूल फिर न हो। कश्मीर की समस्या और अंतरराष्ट्रीय राजनीति- कश्मीर के विषय को ध्यान में रखते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह विषय अत्यंत प्रारम्भ में ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अंग बना दिया गया था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और पाकिस्तान के सम्बन्धों ने भी कश्मीर विषय को प्रभावित किया। अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की पर्ंतु तब जब कि उसे स्वयं इसका शिकार होना पडा लेकिन इसी आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर अमेरिका ने पाकिस्तान को धन और हथियारों से न केवल सुसज्जित कर दिया है वरन उसके आतंकवादी व्यवसाय की ओर से आँखें भी मूँद ली हैं। आज अफगानिस्तान में विजय के लिये अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता है। क्योंकि जो लोग अमेरिका को अधिक नहीं जानते उन्हें नहीं पता कि अमेरिका की सबसे बडी शक्ति उसकी खुफिया एजेंसी है और इसके लिये अमेरिका सदैव दूसरों पर निर्भर रहता है। शीत युद्ध के समय उसने सोवियत संघ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये जर्मनी के युद्ध में आत्मसमर्पण करने वाले हिटलर के सेनाधिकारियों के साथ सौदा किया और गोपनीय तरीके से 1970 के दशक तक यह कार्य जारी रहा। एक बार फिर अमेरिका इस्लामी संगठनों और जिहादियों के सहारे अफगानिस्तान में अपना सम्मान सुरक्षित रखना चाहता है इसलिये आज वह पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में है। हमने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जिस प्रकार अपनी विदेश नीति और आतंकवाद के विरुद्ध अपनी लडाई को आउटसोर्स कर दिया है उसके बाद यह निश्चित है कि कश्मीर के विषय में भारत को न केवल दबाने का प्रयास होगा वरन उसे पाकिस्तान की मह्त्वाकाँक्षा पूर्ण करने के लिये विवश किया जायेगा।
कश्मीर समस्या का तीसरा आयाम भी है जिसे हमें ध्यान में रखना होगा- यह विषय पूरी तरह वैश्विक जिहादी अन्दोलन से भी जुडा है। खाडी के देशों में तेल के धन ने अचानक समस्त विश्व में जिहादी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा का नया दौर आरम्भ कर दिया और मध्य पूर्व सहित पश्चिम एशिया में 1980 के दशक से राज्य प्रायोजित आतंकवाद का जो दौर आरम्भ हुआ है वह अभी तक जारी है। खाडी के तेल के धन से वहाबी विचारधारा और फिर सलाफी विचारधारा ने जो जडें समस्त विश्व के मुस्लिम देशों और गैर मुस्लिम देशों मुस्लिम जनमानस में बनाई हैं उसका परिणाम आज हमारे समक्ष है। कश्मीर में आज सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेंकने और फिर मीडिया के द्वारा विषय को चर्चा में लाने की रणनीति पूरी तरह इजरायल- फिलीस्तीन के संघर्ष की याद दिलाती है। इसी प्रकार 1980 के द्शक मे जनरल जिया उल हक के नेतृत्व में पाकिस्तान की सेना का जो जिहादीकरण आरम्भ हुआ था वह अब पूरी तरह सम्पन्न हो चुका है और अब पाकिस्तान की सेना और आई एस आई तथा अल कायदा और तालिबान की विचारधारा में कोई भेद नहीं रह गया है। कश्मीर की समस्या के इस पहलू को न समझने की भूल हमने 1989 से आज तक की है। आगे भी हम ऐसी भूल न करें इसके लिये हमें कश्मीर के व्यापक सन्दर्भ को समझना होगा। जो लोग यह भूल कर रहे हैं कि 2001 को अमेरिका पर हुए आक्रमण के बाद आब जिहादी मह्त्वाकाँक्षा ने आतंकवाद का रास्ता छोड दिया है और सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेकने की घट्ना इसका प्रमाण है तो उन्हें समझना चाहिये कि जिहाद एक लक्ष्य है जिसके लिये रणनीति कुछ भी हो सकती है।आज कश्मीर के विषय पर हम जिस मोड पर खडे हैं वहाँ हमें इसका समाधान करने के लिये इस समस्या के तीनों आयामों को एक साथ लेकर चलना होगा। आज कश्मीर का प्रश्न हमारे राष्ट्रीय चरित्र . राष्ट्रीय इच्छा शक्ति और भविष्य़ के भारत का रेखाचित्र है। आज जहाँ आर्थिक आधार पर हमारी चर्चा हो रही है तो अब हमारी चुनौती राष्ट्र की अखण्ड्ता और इसके मूल स्वरूप को बनाये रखने की भी है।
लेख लोकमंच से साभार लिया गया है
आज कश्मीर के सम्बन्ध में यह बात पूरी तरह समझने की है कि कश्मीर भारत की मूल पहचान और संस्कृति का अभिन्न अंग सह्स्त्रों वर्षों से रहा है। कश्मीर के सम्बन्ध में एक बडी भूल यही होती है कि हम इसे भारत का अभिन्न अंग मानते हुए भी इसे एक राजनीतिक ईकाई भर मान कर संतुष्ट हो जाते हैं जिसका इतिहास 194 से आरम्भ होता है। कश्मीर के प्रति भारत का भावनात्मक लगाव जब तक उसकी ऐतिहासिकता के साथ चर्चा मे नहीं लाया जाता तब तक इसका पक्ष अधूरा रहेगा। इसी पक्ष के अभाव के चलते इस समस्या को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में देखा जाता है और भारत का एक वर्ग कहीं न कहीं जाने अनजाने इस सम्बन्ध में हीन भावना से ग्रस्त होता जा रहा है कि कश्मीर में स्वायत्तता या फिर स्वतंत्रता की माँग पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार कश्मीर समस्या का एक आयाम तो उसे उसके सांस्कृतिक सातत्य में न देखने की भूल है। कश्मीर में वर्तमान समय में हम जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह पूरी तरह स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का परिणाम है। भारत को स्वाधीनता देने के बाद भी तत्कालीन विश्व राजनीति के सन्दर्भ मे ब्रिटेन और अमेरिका को दक्षिण एशिया में अपनी रणनीतिक आवश्यकता के लिये कश्मीर की आवश्यकता थी ताकि इस पूरे क्षेत्र में रूस के प्रभाव को रोका जा सके। इसी कारण इन दोनों ही देशों ने पाकिस्तान को अपना सहयोगी मान लिया और एशिया में रूस के प्रभाव को रोकने के लिये चीन को रूस के विरुद्ध प्रयोग करने में भी इन शक्तियों के निकट चीन को लाने में पाकिस्तान की भूमिका रही। इन कारणों से पश्चिमी शक्तियाँ सदैव पाकिस्तान को सहयोग देती रहीं और पाकिस्तान ने इसका लाभ उठा कर कश्मीर को एक ऐतिहासिक अधूरे प्रश्न के रूप में एक रिसते हुए घाव की तरह भारत के विरुद्ध प्रयोग किया। आज जब हम इस ऐतिहासिक घटनाओं के सन्दर्भ में कश्मीर समस्या की ओर देखते हैं तो प्रश्न उठता है कि इस समस्या को लेकर हमारा आज का दृष्टिकोण क्या होना चाहिये?
सर्वप्रथम तो हम कश्मीर समस्या को केवल राजनीतिक समस्या नहीं मान सकते। इस समस्या के सम्बन्ध में हमारी सरकारें भले ही दावा करें कि हम किसी तीसरी शक्ति की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेंगे परंतु वास्तविकता तो यह है कि हम काफी पहले से इसमें अमेरिका को परोक्ष रूप से शामिल कर चुके हैं। यदि जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर पर कबायलियों के हमले के बाद ब्रिटेन और तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन के दबाव में युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी और इस विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की भूल कर दी थी तो उसके बाद सभी काँग्रेसी सरकारों ने इस विषय को परोक्ष रूप से एक अंतरराष्ट्रीय विषय़ ही मानकर इसके साथ आचरण किया। कूट्नीतिक विफलताओं, पाकिस्तान के विरुद्ध पर्याप्त दबाव न डाल पाने और समय समय पर विदेशी दबाव में पाकिस्तान के साथ बातचीत की अपनी नीतियों के कारण पाकिस्तान ने सदैव कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विषय बनाये रखने में सफलता प्राप्त की। आज कश्मीर के विषय को हमें तीन सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है।
घरेलू सन्दर्भ- वैसे तो हम लम्बे समय से कहते आये हैं कि कश्मीर हमारा अविभाज्य अंग है परंतु एक राष्ट्र के रूप में हमने अपनी इस इच्छा शक्ति का प्रमाण कभी दिया नहीं। कश्मीर को धीरे धीरे शेष देश से अलग कर उसे विशुद्ध रूप से इस्लामी पहचान देने का प्रयास हो रहा है और इसका एक ही समाधान है कि कश्मीर की विशेष स्थिति का दर्जा समाप्त कर वहाँ से धारा 370 समाप्त की जाये ताकि उस क्षेत्र के साथ भी शेष भारत का आत्मसातीकरण हो सके। आज कश्मीर के विशेष दर्जे की बात उठाते समय तर्क दिया जाता है कि देश के पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रो को भी संविधान से विशेष दर्जा प्राप्त है परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि पूर्वोत्तर के सभी क्षेत्रों में शेष भारत के लोग न केवल व्यापार कर रहे हैं वरन पिछली अनेक पीढियों से बसे भी हैं और वहाँ किसी भी क्षेत्र में किसी नस्ल या धर्म विशेष के लोगों को जबरन विस्थापित नहीं किया गया है। इन क्षेत्रों में अनेक सेवा कार्यों और विभिन्न प्रकल्पों के द्वारा ऐसे प्रयास हुए हैं कि यहाँ अलगाव का भाव कम हुआ है । लेकिन इसके विपरीत कश्मीर में ऐसा कोई भी प्रयास नही हो सका क्योंकि इस समस्या को सदैव एक धर्म विशेष से जोडकर ही देखा गया और मतों के तुष्टीकरण की नीति के चलते कश्मीर के पूरे सन्दर्भ के साथ एक धर्म विशेष की पहचान को हटाकर इसे राष्ट्रीय विषय बनाने की प्रवृत्ति विकसित करने के स्थान पर इसकी माँग करने वालों को साम्प्रदायिक बताकर कश्मीर के विषय को और जटिल बना दिया गया।
पिछले दो दशकों के घटनाक्रम के बाद इस विषय में किसी को सन्देह रह ही नहीं जाना चाहिये कि कश्मीर में अलगाववादी चाहते क्या है? सैयद अली शाह गिलानी पिछले अनेक दशकों से घोषित करते आये हैं कि कश्मीर का विषय जिहाद से जुडा है। पिछले कुछ माह में कश्मीर का घटनाक्रम इस तथ्य को पुष्ट भी करता है कि वहाँ गिलानी ने जो कैलेंडर जारी किया है वह किसी इस्लामी राज्य के सदृश है जहाँ जुमा के दिन ( शुक्रवार) सार्वजनिक अवकाश होता है और रविवार को स्कूल और कार्यालय खुले रहते हैं। घरेलू मोर्चे पर कश्मीर के विषय को समझते समय हमें यह भूल कदापि नहीं करनी चाहिये कि यह एक वृहत्तर इस्लामी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा से भी जुडा है जिसका समाधान करने के लिये इतिहास से ही कुछ शिक्षा लेनी होगी ताकि इस मह्त्वाकाँक्षा के समक्ष समर्पण जैसी भूल फिर न हो। कश्मीर की समस्या और अंतरराष्ट्रीय राजनीति- कश्मीर के विषय को ध्यान में रखते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह विषय अत्यंत प्रारम्भ में ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अंग बना दिया गया था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और पाकिस्तान के सम्बन्धों ने भी कश्मीर विषय को प्रभावित किया। अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की पर्ंतु तब जब कि उसे स्वयं इसका शिकार होना पडा लेकिन इसी आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर अमेरिका ने पाकिस्तान को धन और हथियारों से न केवल सुसज्जित कर दिया है वरन उसके आतंकवादी व्यवसाय की ओर से आँखें भी मूँद ली हैं। आज अफगानिस्तान में विजय के लिये अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता है। क्योंकि जो लोग अमेरिका को अधिक नहीं जानते उन्हें नहीं पता कि अमेरिका की सबसे बडी शक्ति उसकी खुफिया एजेंसी है और इसके लिये अमेरिका सदैव दूसरों पर निर्भर रहता है। शीत युद्ध के समय उसने सोवियत संघ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये जर्मनी के युद्ध में आत्मसमर्पण करने वाले हिटलर के सेनाधिकारियों के साथ सौदा किया और गोपनीय तरीके से 1970 के दशक तक यह कार्य जारी रहा। एक बार फिर अमेरिका इस्लामी संगठनों और जिहादियों के सहारे अफगानिस्तान में अपना सम्मान सुरक्षित रखना चाहता है इसलिये आज वह पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में है। हमने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जिस प्रकार अपनी विदेश नीति और आतंकवाद के विरुद्ध अपनी लडाई को आउटसोर्स कर दिया है उसके बाद यह निश्चित है कि कश्मीर के विषय में भारत को न केवल दबाने का प्रयास होगा वरन उसे पाकिस्तान की मह्त्वाकाँक्षा पूर्ण करने के लिये विवश किया जायेगा।
कश्मीर समस्या का तीसरा आयाम भी है जिसे हमें ध्यान में रखना होगा- यह विषय पूरी तरह वैश्विक जिहादी अन्दोलन से भी जुडा है। खाडी के देशों में तेल के धन ने अचानक समस्त विश्व में जिहादी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा का नया दौर आरम्भ कर दिया और मध्य पूर्व सहित पश्चिम एशिया में 1980 के दशक से राज्य प्रायोजित आतंकवाद का जो दौर आरम्भ हुआ है वह अभी तक जारी है। खाडी के तेल के धन से वहाबी विचारधारा और फिर सलाफी विचारधारा ने जो जडें समस्त विश्व के मुस्लिम देशों और गैर मुस्लिम देशों मुस्लिम जनमानस में बनाई हैं उसका परिणाम आज हमारे समक्ष है। कश्मीर में आज सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेंकने और फिर मीडिया के द्वारा विषय को चर्चा में लाने की रणनीति पूरी तरह इजरायल- फिलीस्तीन के संघर्ष की याद दिलाती है। इसी प्रकार 1980 के द्शक मे जनरल जिया उल हक के नेतृत्व में पाकिस्तान की सेना का जो जिहादीकरण आरम्भ हुआ था वह अब पूरी तरह सम्पन्न हो चुका है और अब पाकिस्तान की सेना और आई एस आई तथा अल कायदा और तालिबान की विचारधारा में कोई भेद नहीं रह गया है। कश्मीर की समस्या के इस पहलू को न समझने की भूल हमने 1989 से आज तक की है। आगे भी हम ऐसी भूल न करें इसके लिये हमें कश्मीर के व्यापक सन्दर्भ को समझना होगा। जो लोग यह भूल कर रहे हैं कि 2001 को अमेरिका पर हुए आक्रमण के बाद आब जिहादी मह्त्वाकाँक्षा ने आतंकवाद का रास्ता छोड दिया है और सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेकने की घट्ना इसका प्रमाण है तो उन्हें समझना चाहिये कि जिहाद एक लक्ष्य है जिसके लिये रणनीति कुछ भी हो सकती है।आज कश्मीर के विषय पर हम जिस मोड पर खडे हैं वहाँ हमें इसका समाधान करने के लिये इस समस्या के तीनों आयामों को एक साथ लेकर चलना होगा। आज कश्मीर का प्रश्न हमारे राष्ट्रीय चरित्र . राष्ट्रीय इच्छा शक्ति और भविष्य़ के भारत का रेखाचित्र है। आज जहाँ आर्थिक आधार पर हमारी चर्चा हो रही है तो अब हमारी चुनौती राष्ट्र की अखण्ड्ता और इसके मूल स्वरूप को बनाये रखने की भी है।
लेख लोकमंच से साभार लिया गया है
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